कहानी संग्रह >> मैं जीत गया पापा मैं जीत गया पापाप्रकाश मनु
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बच्चों के लिए आठ कहानियों का संग्रह...
अनुक्रम
1
मैं जीत गया पापा
महाराजपुर के जानकीबाई हाईस्कूल के खेल के मैदान में उस दिन दर्शक टूट
पड़े थे। स्कूल के विद्यार्थी और अध्यापक तो उत्साहित थे ही, पूरे
महाराजपुर में ही एक अजब-सी सनसनी और उत्तेजना थी। आज जानकीबाई हाईस्कूल
की फुटबाल टीम का शहर के आदर्श मॉडल स्कूल के बच्चों के साथ मैच होना था।
आदर्श मॉडल स्कूल की फुटबाल टीम का दूर-दूर तक नाम था। पिछले चार-पाँच वर्षों में शायद ही कोई मैच वह हारी हो। पर जानकीबाई हाईस्कूल के बच्चों ने अपनी पुरानी टीम में जान डाल दी थी। इधर खिलाड़ियों भी खूब खुश थे। वे बार-बार यह दोहराते थे कि ‘‘बच्चों, मुझे उम्मीद है कि तुम लोग एक नया इतिहास रच डालोगे। जानकीबाई हाईस्कूल की फुटबाल टीम अब अजेय कहलाएगी।’’
और सचमुच जानकीबाई हाईस्कूल के बच्चों ने इधर एक-एक कर कई मैच लगातार जीते थे। पिछले छह महीनों में तो उन्होंने सचमुच इतिहास बदलकर दिखा दिया। शायद ही कोई मैच हो जिसमें जानकीबाई टीम के उत्साही बच्चे हारे हों। यहाँ तक कि एक बार स्कूल के बच्चों और अध्यापकों के बीच भी मैच हुआ था और उसमें बच्चों ने इतना बढ़िया खेल का प्रदर्शन किया था कि अध्यापक हैरान रह गए। शुरू में देखकर लगता था कि बच्चे हारेंगे। भला उम्र में इतने बड़े, अनुभवी और होशियार अध्यापकों के आगे वे कैसे टिकेंगे ? पर टीम के कप्तान सुनील और उस टीम के दबंग खिलाड़ियों नितिन, धुन्नू और बिल्लू ने इस चुनौती का इतना डटकर मुकाबला किया कि सामने वाली टीम के पसीने छूट गए और दर्शकों की तालियों ने समा बाँध दिया। तब हारे हुए अध्यापकों ने अपने ही विजेता शिष्यों को आशीर्वाद दिया–‘‘विजयी भव !’’ और उसके बाद बंगाली रसगुल्लों और कचौड़ियों की दावत !
टीम के होनहार खिलाड़ियों में धुन्नू सबसे आगे था। वह स्कूल के चपरासी मेवालाल का बेटा था, पर उसमें खेलकूद की इतनी लगन थी कि उसे पहली बार खेलता देखा था, तो सुनील एकदम हैरान रह गया था। उसने अपनी टीम के बाकी खिलाड़ियों से पूछा और फिर झटपट धुन्नू को टीम में ले लिया। धुन्नू शुरू से ही तेज था, पर बाद में तो उसके खेल में इतना निखार आया कि कई बार उसने कप्तान सुनील से भी ज्यादा गोल किए और ऐसे हालत में गोल किए कि उसे खूब वाहवाही और तालियाँ मिलीं।
इस बार सारे महाराजपुर के लोग उत्सुकता से देखने पहुँचे थे कि आखिर मैच में कौन-सी टीम जीतेगी। जानकीबाई हाई स्कूल के बच्चों ने इस बार खासी तैयारी की थी और छोटी से छोटी बात पर गंभीरता से विचार-विमर्श किया था। वे पूरी रणनीति बनाकर खेल के मैदान में उतरे थे और एड़ी से चोटी तक का जोर लगाकर यह मैच हर हाल में तीज लेना चाहते थे। साथ ही इधर सुनील और धुन्नू के खेल में भी खासा सुधार हुआ था। खेल शुरू हुआ तो दोनों ने खूब कमाल दिखाया, पर जाने क्यों धुन्नू के आगे सुनील कुछ फीका पड़ जाता था। धुन्नू में मैच जीतने का जो जोश और फुर्ती थी, सुनील में वह न थी। लिहाजा सुनील ने जब-जब गोल करना चाहा, उसका निशाना चूका, लेकिन धुन्नू हर बार कामयाब हुआ। उसने एक के बाद एक तीन गोल ठोंक दिए।
दर्शकों ने खूब तालियाँ बजाकर उसका स्वागत किया। लग रहा था, महाराजपुर के दर्शकों ने पहले ऐसा फुटबाल खिलाड़ी कभी देखा ही नहीं था। पर इस पर सुनील के पापा राजेंद्रनाथ श्रीवास्तव जो शहर की कपड़ा मिल के मालिक थे, जाने क्यों कुढ़ गए। बड़े हों या छोटे, सभी धुन्नू के गोल करने पर जोश में भरकर तालियाँ बजा रहे थे। पर श्रीवास्तव साहब के हाथ एक बार भी नहीं उठे, बल्कि उनका चेहरा मानो सफेद हो गया था।
घर आकर उन्होंने सुनील को बुलाया। कहा–‘‘मैंने तुम्हें कहा था न इस चपरासी के बेटे को ज्यादा लिफ्ट मत दो। पर तुम नहीं माने और आज देख लिया न...!’’
सुनील हक्का-बक्का। वह समझ नहीं पाया कि पापा कहना क्या चाहते हैं ? उसे तो लगा था कि उसकी टीम जीती है तो पापा खुश होकर उसकी तारीफ करेंगे, पर...?
‘‘मैंने प्रिंसिपल श्यामलाकांत जी से कहा है कि वे उसे स्कूल से निकाल दें। ऐसे गंदे बच्चे को मैं बिल्कुल पसंद नहीं करता जो इतना घमंडी और खुदगर्ज हो। हर बार तुमसे बाल छीनकर उसने आगे बढ़कर गोल किया, हर बार ताकि...!’’ कहते कहते सुनील के पापा का चेहरा मारे क्रोध के लाल हो गया।
‘‘न...नहीं, पापा ऐसा तो नहीं !’’ सुनील हक्का-बक्का था और पापा की बातें उसे अजीब लग रही थी। पर उनका विरोध करने का मतलब था, उनका गुस्सा और भड़काना। लिहाजा वह चुप हो गया।
शायद कुछ देर बाद पापा का गुस्सा शांत हो जाए, सोचकर सुनील बाहर लॉन में चला गया और वहाँ खेलती हुई चिड़ियों को देखने लगा।
उसके बाद भी सुनील धुन्नू के साथ अपने स्कूल की फुटबाल टीम में खेलता रहा, पर जाने क्यों उसका मन भी बदल-सा गया था। उसे लगने लगा था कि धुन्नू के सामने उसकी चमक फीकी पड़ जाती है और सारी वाहवाही धुन्नू के हिस्से आ जाती है। यों होते-होते जो नहीं होना था, वही हुआ, यानी सुनील और धुन्नू की दोस्ती में भी दरार पड़ गई।
उसके बाद तो सुनील जान-बूझकर कोशिश करता कि खेल में वही हावी रहे और सबसे अलग नजर आए। धुन्नू को कम से कम गोल करने का मौका मिले। पर धुन्नू ने जाने कैसा जादू साध रखा था कि वह दूर से भी किक करता तो बाल सीधी गोल में जाती और कई बार तो उसके खेल इतना लाजवाब होता कि विपक्षी टीम के खिलाड़ी भी उसकी जी भरकर तारीफ करते।
इससे सुनील इतना चिढ़ जाता कि अपनी टीम की जीत के बावजूद वह धुन्नू को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाता था।
एक-दो बार तो हालत यह हुई कि विपक्षी टीम के कप्तान ने जमकर दाद दी कि ‘‘सुनील भाई, तुम्हारी टीम में धुन्नू अनोखा खिलाड़ी है। वह तो जैसे फुटबाल का जादूगर है। मेरी ओर से उसे बधाई देना !’’
इस पर सुनील ने कुढ़कर कहा–‘‘हाँ, धुन्नू ठीक है, पर उसे सिखाया तो मैंने ही है। वैसे हमारे यहाँ तो सभी खिलाड़ी अच्छे हैं और बहुत-से तो धुन्नू से लाख दर्जे अच्छे हैं।’’
सुनकर सामने वाला हैरान रह गया। और सुनील गुस्से से अपना चेहरा फुलाए एक ओर हटकर खड़ा हो गया।
उधर धुन्नू अब भी सुनील को अपना प्यारा दोस्त और बड़ा भाई मानता था, जैसे शुरू में मानता आ रहा था। वह मानता था कि उसके खेल को निखारने और धार देने में सुनील ने वाकई मेहनत की है। बार-बार सभी से वह यह कहता था और सुनील से भी। लेकिन सुनील उसकी बातों का जवाब थोड़े रूखेपन से देता, तो उसे धक्का पहुँचता।
धुन्नू किसी तरह मन को समझा लेता कि शायद सुनील का मूड कुछ ठीक नहीं है, वरना वह तो मुझे इतना प्यार करता है। उसी ने तो मुझे आगे आने का इतना मौका दिया था, वरना मैं था कहाँ ?
अब धुन्नू का एक ही सपना था कि वह बड़ा होकर फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी बने। इतना अच्छा खिलाड़ी कि खेल के मैदान में उसका प्रदर्शन देखकर लोग झूम उठें।
धुन्नू के पिता मेवालाल जानकीबाई स्कूल में चपरासी थे और बेटे को ज्यादा सुविधाएँ नहीं दे पा रहे थे। फिर भी धुन्नू आगे निकलता जा रहा था। देखकर उनकी छाती फूल उठती। लेकिन उन्हें क्या पता ता कि धुन्नू की यही सफलता सुनील के पापा श्रीवास्तव साहब के मन में करक रही थी और मुसीबत यह थी कि श्रीवास्तव साहब एक बड़ी फैक्टरी के मालिक होने के साथ-साथ स्कूल के मैनेजर भी थे।
श्रीवास्तव साहब जब-तब स्कूल में मुआयने के लिए आते थे और जाने क्या बात थी कि उनका गुस्सा कम होने के बजाए उलटा और भड़कता जा रहा था। उन्हें लगता था कि धुन्नू के हिस्से आने वाली तालियाँ सुनील को मिलनी चाहिए। पर उफ, यह चपरासी का बेटा ! इसलिए जब वे स्कूल में आते और मेवालाल उनकी आँखों के आगे आ पड़ता, तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचता।
अब वे उसे कामचोरी का आरोप लगाकर बात-बात में तंग करने लगे। स्कूल से निकालने की धमकी देते हुए कहता—‘‘जैसे तुम, वैसा ही तुम्हारा बेटा। बिल्कुल नालायक हो तुम ! मैं तुम्हें एकदम बर्दाश्त नहीं कर सकता। मुझे अपनी मनहूस शक्ल मत दिखाया करो।’
इससे मेवालाल यह तो समझ ही गया कि श्रीवास्तव साहब उसके बेटे की तरक्की से परेशान हैं और वही गुस्सा उलटकर अब उस पर उतर रहा है। पर वह सोचता–‘भला मैं क्या करूँ ? क्या धुन्नू से यह कहूँ कि वह जान-बूझकर पीछे रहा करे। फुटबाल सामने आए तो भी किक न किया करे। और गोल तो हरगिज न करे !’
एक बार तो मेवालाल ने सोच ही लिया था कि वह धुन्नू से कहे कि वह फुटबाल छोड़कर कोई और खेल खेलना शुरू कर दे। पर फिर उसके मन ने उसे धिक्कारा–‘अरे, मैं कैसा पिता हूँ ! पिता का काम बेटे के आगे दीवार खड़ी करना है या उसके लिए रास्ता बनाना है ! मैं भला उसकी मुश्किलें क्यों बढ़ाऊँ ? उसके रास्ते में रोड़े क्यों अटकाऊँ ?’
पर श्रीवास्तव साहब लगातार अपनी कोशिशों में जुटे रहे। उन्होंने प्रिंसिपल श्यामलकांत पर दबाव बढ़ाना शुरू किया कि वे मेवालाल को नौकरी से हटा दें या फिर कम से कम धुन्नू को ही स्कूल से निकाल दें। प्रिंसिपल श्यामलाकांत मेवालाल को भी चाहते थे और धुन्नू को तो जी-जान से प्यार करते थे। वे जानते थे कि न मेवालाल का कुछ कसूर है और न धुन्नू का। बल्कि धुन्नू ने तो जानकीबाई हाईस्कूल के यश में चार चाँद ही लगाए। पर उन पर श्रीवास्तव साहब का दबाव इतना बढ़ता जा रहा था कि आखिर न चाहते हुए भी उन्हें अप्रिय निर्णय लेना पड़ा। हाँ, धुन्नू को बिना बात स्कूल से निकालने के बजाए उन्होंने यही उचित समझा कि उसे अलग से बुलाकर सारी बात बता दें।
आदर्श मॉडल स्कूल की फुटबाल टीम का दूर-दूर तक नाम था। पिछले चार-पाँच वर्षों में शायद ही कोई मैच वह हारी हो। पर जानकीबाई हाईस्कूल के बच्चों ने अपनी पुरानी टीम में जान डाल दी थी। इधर खिलाड़ियों भी खूब खुश थे। वे बार-बार यह दोहराते थे कि ‘‘बच्चों, मुझे उम्मीद है कि तुम लोग एक नया इतिहास रच डालोगे। जानकीबाई हाईस्कूल की फुटबाल टीम अब अजेय कहलाएगी।’’
और सचमुच जानकीबाई हाईस्कूल के बच्चों ने इधर एक-एक कर कई मैच लगातार जीते थे। पिछले छह महीनों में तो उन्होंने सचमुच इतिहास बदलकर दिखा दिया। शायद ही कोई मैच हो जिसमें जानकीबाई टीम के उत्साही बच्चे हारे हों। यहाँ तक कि एक बार स्कूल के बच्चों और अध्यापकों के बीच भी मैच हुआ था और उसमें बच्चों ने इतना बढ़िया खेल का प्रदर्शन किया था कि अध्यापक हैरान रह गए। शुरू में देखकर लगता था कि बच्चे हारेंगे। भला उम्र में इतने बड़े, अनुभवी और होशियार अध्यापकों के आगे वे कैसे टिकेंगे ? पर टीम के कप्तान सुनील और उस टीम के दबंग खिलाड़ियों नितिन, धुन्नू और बिल्लू ने इस चुनौती का इतना डटकर मुकाबला किया कि सामने वाली टीम के पसीने छूट गए और दर्शकों की तालियों ने समा बाँध दिया। तब हारे हुए अध्यापकों ने अपने ही विजेता शिष्यों को आशीर्वाद दिया–‘‘विजयी भव !’’ और उसके बाद बंगाली रसगुल्लों और कचौड़ियों की दावत !
टीम के होनहार खिलाड़ियों में धुन्नू सबसे आगे था। वह स्कूल के चपरासी मेवालाल का बेटा था, पर उसमें खेलकूद की इतनी लगन थी कि उसे पहली बार खेलता देखा था, तो सुनील एकदम हैरान रह गया था। उसने अपनी टीम के बाकी खिलाड़ियों से पूछा और फिर झटपट धुन्नू को टीम में ले लिया। धुन्नू शुरू से ही तेज था, पर बाद में तो उसके खेल में इतना निखार आया कि कई बार उसने कप्तान सुनील से भी ज्यादा गोल किए और ऐसे हालत में गोल किए कि उसे खूब वाहवाही और तालियाँ मिलीं।
इस बार सारे महाराजपुर के लोग उत्सुकता से देखने पहुँचे थे कि आखिर मैच में कौन-सी टीम जीतेगी। जानकीबाई हाई स्कूल के बच्चों ने इस बार खासी तैयारी की थी और छोटी से छोटी बात पर गंभीरता से विचार-विमर्श किया था। वे पूरी रणनीति बनाकर खेल के मैदान में उतरे थे और एड़ी से चोटी तक का जोर लगाकर यह मैच हर हाल में तीज लेना चाहते थे। साथ ही इधर सुनील और धुन्नू के खेल में भी खासा सुधार हुआ था। खेल शुरू हुआ तो दोनों ने खूब कमाल दिखाया, पर जाने क्यों धुन्नू के आगे सुनील कुछ फीका पड़ जाता था। धुन्नू में मैच जीतने का जो जोश और फुर्ती थी, सुनील में वह न थी। लिहाजा सुनील ने जब-जब गोल करना चाहा, उसका निशाना चूका, लेकिन धुन्नू हर बार कामयाब हुआ। उसने एक के बाद एक तीन गोल ठोंक दिए।
दर्शकों ने खूब तालियाँ बजाकर उसका स्वागत किया। लग रहा था, महाराजपुर के दर्शकों ने पहले ऐसा फुटबाल खिलाड़ी कभी देखा ही नहीं था। पर इस पर सुनील के पापा राजेंद्रनाथ श्रीवास्तव जो शहर की कपड़ा मिल के मालिक थे, जाने क्यों कुढ़ गए। बड़े हों या छोटे, सभी धुन्नू के गोल करने पर जोश में भरकर तालियाँ बजा रहे थे। पर श्रीवास्तव साहब के हाथ एक बार भी नहीं उठे, बल्कि उनका चेहरा मानो सफेद हो गया था।
घर आकर उन्होंने सुनील को बुलाया। कहा–‘‘मैंने तुम्हें कहा था न इस चपरासी के बेटे को ज्यादा लिफ्ट मत दो। पर तुम नहीं माने और आज देख लिया न...!’’
सुनील हक्का-बक्का। वह समझ नहीं पाया कि पापा कहना क्या चाहते हैं ? उसे तो लगा था कि उसकी टीम जीती है तो पापा खुश होकर उसकी तारीफ करेंगे, पर...?
‘‘मैंने प्रिंसिपल श्यामलाकांत जी से कहा है कि वे उसे स्कूल से निकाल दें। ऐसे गंदे बच्चे को मैं बिल्कुल पसंद नहीं करता जो इतना घमंडी और खुदगर्ज हो। हर बार तुमसे बाल छीनकर उसने आगे बढ़कर गोल किया, हर बार ताकि...!’’ कहते कहते सुनील के पापा का चेहरा मारे क्रोध के लाल हो गया।
‘‘न...नहीं, पापा ऐसा तो नहीं !’’ सुनील हक्का-बक्का था और पापा की बातें उसे अजीब लग रही थी। पर उनका विरोध करने का मतलब था, उनका गुस्सा और भड़काना। लिहाजा वह चुप हो गया।
शायद कुछ देर बाद पापा का गुस्सा शांत हो जाए, सोचकर सुनील बाहर लॉन में चला गया और वहाँ खेलती हुई चिड़ियों को देखने लगा।
उसके बाद भी सुनील धुन्नू के साथ अपने स्कूल की फुटबाल टीम में खेलता रहा, पर जाने क्यों उसका मन भी बदल-सा गया था। उसे लगने लगा था कि धुन्नू के सामने उसकी चमक फीकी पड़ जाती है और सारी वाहवाही धुन्नू के हिस्से आ जाती है। यों होते-होते जो नहीं होना था, वही हुआ, यानी सुनील और धुन्नू की दोस्ती में भी दरार पड़ गई।
उसके बाद तो सुनील जान-बूझकर कोशिश करता कि खेल में वही हावी रहे और सबसे अलग नजर आए। धुन्नू को कम से कम गोल करने का मौका मिले। पर धुन्नू ने जाने कैसा जादू साध रखा था कि वह दूर से भी किक करता तो बाल सीधी गोल में जाती और कई बार तो उसके खेल इतना लाजवाब होता कि विपक्षी टीम के खिलाड़ी भी उसकी जी भरकर तारीफ करते।
इससे सुनील इतना चिढ़ जाता कि अपनी टीम की जीत के बावजूद वह धुन्नू को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाता था।
एक-दो बार तो हालत यह हुई कि विपक्षी टीम के कप्तान ने जमकर दाद दी कि ‘‘सुनील भाई, तुम्हारी टीम में धुन्नू अनोखा खिलाड़ी है। वह तो जैसे फुटबाल का जादूगर है। मेरी ओर से उसे बधाई देना !’’
इस पर सुनील ने कुढ़कर कहा–‘‘हाँ, धुन्नू ठीक है, पर उसे सिखाया तो मैंने ही है। वैसे हमारे यहाँ तो सभी खिलाड़ी अच्छे हैं और बहुत-से तो धुन्नू से लाख दर्जे अच्छे हैं।’’
सुनकर सामने वाला हैरान रह गया। और सुनील गुस्से से अपना चेहरा फुलाए एक ओर हटकर खड़ा हो गया।
उधर धुन्नू अब भी सुनील को अपना प्यारा दोस्त और बड़ा भाई मानता था, जैसे शुरू में मानता आ रहा था। वह मानता था कि उसके खेल को निखारने और धार देने में सुनील ने वाकई मेहनत की है। बार-बार सभी से वह यह कहता था और सुनील से भी। लेकिन सुनील उसकी बातों का जवाब थोड़े रूखेपन से देता, तो उसे धक्का पहुँचता।
धुन्नू किसी तरह मन को समझा लेता कि शायद सुनील का मूड कुछ ठीक नहीं है, वरना वह तो मुझे इतना प्यार करता है। उसी ने तो मुझे आगे आने का इतना मौका दिया था, वरना मैं था कहाँ ?
अब धुन्नू का एक ही सपना था कि वह बड़ा होकर फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी बने। इतना अच्छा खिलाड़ी कि खेल के मैदान में उसका प्रदर्शन देखकर लोग झूम उठें।
धुन्नू के पिता मेवालाल जानकीबाई स्कूल में चपरासी थे और बेटे को ज्यादा सुविधाएँ नहीं दे पा रहे थे। फिर भी धुन्नू आगे निकलता जा रहा था। देखकर उनकी छाती फूल उठती। लेकिन उन्हें क्या पता ता कि धुन्नू की यही सफलता सुनील के पापा श्रीवास्तव साहब के मन में करक रही थी और मुसीबत यह थी कि श्रीवास्तव साहब एक बड़ी फैक्टरी के मालिक होने के साथ-साथ स्कूल के मैनेजर भी थे।
श्रीवास्तव साहब जब-तब स्कूल में मुआयने के लिए आते थे और जाने क्या बात थी कि उनका गुस्सा कम होने के बजाए उलटा और भड़कता जा रहा था। उन्हें लगता था कि धुन्नू के हिस्से आने वाली तालियाँ सुनील को मिलनी चाहिए। पर उफ, यह चपरासी का बेटा ! इसलिए जब वे स्कूल में आते और मेवालाल उनकी आँखों के आगे आ पड़ता, तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचता।
अब वे उसे कामचोरी का आरोप लगाकर बात-बात में तंग करने लगे। स्कूल से निकालने की धमकी देते हुए कहता—‘‘जैसे तुम, वैसा ही तुम्हारा बेटा। बिल्कुल नालायक हो तुम ! मैं तुम्हें एकदम बर्दाश्त नहीं कर सकता। मुझे अपनी मनहूस शक्ल मत दिखाया करो।’
इससे मेवालाल यह तो समझ ही गया कि श्रीवास्तव साहब उसके बेटे की तरक्की से परेशान हैं और वही गुस्सा उलटकर अब उस पर उतर रहा है। पर वह सोचता–‘भला मैं क्या करूँ ? क्या धुन्नू से यह कहूँ कि वह जान-बूझकर पीछे रहा करे। फुटबाल सामने आए तो भी किक न किया करे। और गोल तो हरगिज न करे !’
एक बार तो मेवालाल ने सोच ही लिया था कि वह धुन्नू से कहे कि वह फुटबाल छोड़कर कोई और खेल खेलना शुरू कर दे। पर फिर उसके मन ने उसे धिक्कारा–‘अरे, मैं कैसा पिता हूँ ! पिता का काम बेटे के आगे दीवार खड़ी करना है या उसके लिए रास्ता बनाना है ! मैं भला उसकी मुश्किलें क्यों बढ़ाऊँ ? उसके रास्ते में रोड़े क्यों अटकाऊँ ?’
पर श्रीवास्तव साहब लगातार अपनी कोशिशों में जुटे रहे। उन्होंने प्रिंसिपल श्यामलकांत पर दबाव बढ़ाना शुरू किया कि वे मेवालाल को नौकरी से हटा दें या फिर कम से कम धुन्नू को ही स्कूल से निकाल दें। प्रिंसिपल श्यामलाकांत मेवालाल को भी चाहते थे और धुन्नू को तो जी-जान से प्यार करते थे। वे जानते थे कि न मेवालाल का कुछ कसूर है और न धुन्नू का। बल्कि धुन्नू ने तो जानकीबाई हाईस्कूल के यश में चार चाँद ही लगाए। पर उन पर श्रीवास्तव साहब का दबाव इतना बढ़ता जा रहा था कि आखिर न चाहते हुए भी उन्हें अप्रिय निर्णय लेना पड़ा। हाँ, धुन्नू को बिना बात स्कूल से निकालने के बजाए उन्होंने यही उचित समझा कि उसे अलग से बुलाकर सारी बात बता दें।
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